Monday, February 2, 2009

माँ का क़र्ज़ चुकाना है

लाल हुई धरती मैया का तन , मुझे कैसे करके भी जाना है
आस लेके देखती मैया , बेटा कब तुम आओगे
देर हो चुकी है बहुत , अब मुहे किस हाल में पहुचाओगे

मैला हुआ है उनका आँचल , मैं बेटा कैसे कहलाऊंगा
सरहद पे न ही सही , गलियारों से भेडिया भगाउंगा

भगत सुभाष के कुर्बानी को, आज फिर रंग में लाना है
खून के एक एक कतरे से , माँ को हार चढाना है

सन् ५७ की क्रांति बिगुल , एक बार फिर बजानी है
एक बार फिर मिलके सबको , मैया की लाज बचानी है

जाने दे मुझको अब यारो , मुझे माँ के पास जाना है
देके अपना बलिदान , उनका क़र्ज़ चुकाना है

4 comments:

  1. Wah kya bat hai.
    Aapne bahut hi kam shabdon me baht badi bat likh di hai.

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  2. sahi hai Prabhakar . bahut accha hai .

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  3. This is the best poem from your collection..simply heart touching poem...grt work bhai.

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