Thursday, April 9, 2009

न जाने क्यों

सोया हूँ क्या मैं, शायद सब को ऐसा लगता है
टूटे हुए खवाबों में न जाने क्यों , हकीक़त धुंडने की कोशिश करता हूँ

रिश्ते क्या है , शायद इसका एहसास नहीं है
पत्थर के दिलों न जाने क्यों , मैं मोहब्बत धुंडने की कोशिश करता हूँ

नादान हूँ क्या मैं , शायद अब तक ये भी नहीं समझा
इन बेजान बुतों में न जाने क्यों , इबादत धुंडने की कोशिश करता हूँ

मेरे जज्बातों की कीमत , शायद यहाँ कुछ भी नहीं है
बेईमानी के बाजारों में न जाने क्यों , शराफत धुंडने की कोशिश करता हूँ

इस अजनबी दुनिया में , शायद कोई भी अपना नहीं
गैरों की आँखों में न जाने क्यों, अपनी सूरत धुंडने की कोशिश करता हूँ

उम्मीद की थी प्यार की बस , शायद यही भूल थी मेरी
गिरते हुए अश्कों में न जाने क्यों, अपनी हसरत धुंडने की कोशिश करता हूँ

6 comments:

  1. बहुत अच्छे भाईजान| गैरों की सूरत में अपनी सूरत ढूँढना लाजवाब था और सुकून देने वाला भी| गिरते हुए अश्क में हसरत ढूँढना, ये नादानी कोई दिलवाला ही कर सकता है| सलाम आपको, आपके नाले में असर है|
    जय श्री राम|

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  2. ye to badi badi batei kar raha hai,
    is nadan balak mei, nadani dhundhane ki koshish kar raha hun :)

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  3. सुंदर लगी यह रचना ...

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  4. टूटे ख्वावों में
    हकीकत का इक निशान
    अब भी है

    पत्थरदिल में
    मुहब्बत का सामान
    अब भी है

    बेजान बुतों में
    थोडी सी जान
    अब भी है

    बेईमानी के बाज़ार में
    शराफत की इक दूकान
    अब भी है

    गैरों के बीच
    अपना सा इक इंसान
    अब भी है

    गिरते हुए अश्कों को रोको मेरी जान
    परवाह है जिसको वो कद्रदान कहीं
    अब भी है

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  5. thanks bipin bhrata, shashwat bhai, sangeeta ji..

    asha ji bahut khub jawab diya aapne

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  6. Asha ji ne wakai mei bahut achchha jabab diya, padh ke dil khush ho gaya :)

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