लगा है 'प्रभाकर' आज पिघलने यों ही,
ये चाँद सा निर्मल लगा क्यों उबलने यों ही?
हिम-शित सा था जिसका मन ,
बरसाने लगा अंगारे आज क्यों यूँ ही?
उजाले सी जो रात निकली थी ,
क्यों सोने लगी आज अमावश सी ?
यकायक हुई कैसी ये बेबसी की
लाचारगी से ये पवन भी थमने लगी ?
सारे संबंधो में ऐसे क्यों कटुता आई,
जैसे किसी मातम में मूकता है चाई ?
मित्रता थी जिसके रोम रोम में ,
क्यों आज दोस्ती आहुति मांगे लगी ?
कैसी ये गणित है दुनियादारी की?
किसकी ये वणिक-वृत्ति रंग लायी ,
अन्यथा की आज मन मेरा
न जाने क्यों व्यथित है ?
क्यों मेरी उल्लास-प्रबलता है खोयी,
मेरी दशा पे सबकी विकलता आज रोई !
न मेरी रातें है आज , न ही मेरे दिन है ,
'प्रभाकर' क्या तेरा जीवन बहुत कठिन है ?
We run behind clouds, crossing miles - like a musk deer in search of Light.. Earth is round & we end up at same stop & then finally we realise - Light doesn't lie outside but inside..
Wednesday, September 8, 2010
Monday, September 6, 2010
अस्तित्व !!
यूँ एकटक सा
खुले आसमान की पनाहों में
क्या देखता बत्तक सा ?
बेचैनी ये नहीं ,
किसी की भूख भी नहीं
कैसी ये प्यास है ,
मन को क्यों एक आस है ?
किसकी तलाश है?
शायद एक यार की?
दोमूही नहीं,
एक्मूही तलवार की !
जी हाँ,
एक स्वतंत्र विचार की
नदी पार लगाये वो पतवार की !
कहाँ है वो ?
मुझ में तो नहीं ?
टटोलो ,
झकझोरो खुद को !
क्या मैं नहीं हूँ ,
तेरा सबसे करीबी यार ?
मुँह खोले अब क्या है बैठा ?
अब पहचाना अपने अस्तित्व को ?
खुले आसमान की पनाहों में
क्या देखता बत्तक सा ?
बेचैनी ये नहीं ,
किसी की भूख भी नहीं
कैसी ये प्यास है ,
मन को क्यों एक आस है ?
किसकी तलाश है?
शायद एक यार की?
दोमूही नहीं,
एक्मूही तलवार की !
जी हाँ,
एक स्वतंत्र विचार की
नदी पार लगाये वो पतवार की !
कहाँ है वो ?
मुझ में तो नहीं ?
टटोलो ,
झकझोरो खुद को !
क्या मैं नहीं हूँ ,
तेरा सबसे करीबी यार ?
मुँह खोले अब क्या है बैठा ?
अब पहचाना अपने अस्तित्व को ?
Thursday, September 2, 2010
ये कैसा वक़्त है !
ये कैसा वक़्त है ,
न जाने कैसा मौसम है
निकला सीना फूला के , सोच हमारे जेब में बहुत दम है !
लाना था घर के सामान , साथ बच्चों के कुछ अरमान
महीने भर की पगार लेके , चल पड़ा मैं मुंशी की दुकान !
किलो भर जो लिखा था, पौउए में बोल पड़ा मेरा जुबान
क्या करे 'अबे अपनी औकात देख' , बोल पड़ा सामान !
कहके निकला था आज घर से,
मुन्ना की पैंट , मुन्नी की फ्रॉक ,लेंगे आज अब्बाजान
कीमत सुन ऐसा महसूस हुआ
जैसे बित्ते में अब बिकता है , रेशों का भी सामान !
ये कैसा वक़्त है ,
देख रहा है न तू भगवान
मुश्किल हो गया है अब तो, ढकना जिस्म की भी आन !
औधे मुह लौटा हूँ
आज देख सबका ईमान
समय है बेईमान , हो चूका है बेवकूफ इंसान !
जेब में हाथ डाला, सुन चिल्लाते चिल्लर का ये एलान
४ टॉफी लेलो, और सोचो मुस्कुरा के
बच्चो से आज क्या जूठ बोलोगे, ऐ अब्बाजान !
ये कैसा वक़्त है ,
न जाने कैसा मौसम है
खुद की नजरो में गिरना पड़ता है सुबह शाम !
न जाने कैसा मौसम है
निकला सीना फूला के , सोच हमारे जेब में बहुत दम है !
लाना था घर के सामान , साथ बच्चों के कुछ अरमान
महीने भर की पगार लेके , चल पड़ा मैं मुंशी की दुकान !
किलो भर जो लिखा था, पौउए में बोल पड़ा मेरा जुबान
क्या करे 'अबे अपनी औकात देख' , बोल पड़ा सामान !
कहके निकला था आज घर से,
मुन्ना की पैंट , मुन्नी की फ्रॉक ,लेंगे आज अब्बाजान
कीमत सुन ऐसा महसूस हुआ
जैसे बित्ते में अब बिकता है , रेशों का भी सामान !
ये कैसा वक़्त है ,
देख रहा है न तू भगवान
मुश्किल हो गया है अब तो, ढकना जिस्म की भी आन !
औधे मुह लौटा हूँ
आज देख सबका ईमान
समय है बेईमान , हो चूका है बेवकूफ इंसान !
जेब में हाथ डाला, सुन चिल्लाते चिल्लर का ये एलान
४ टॉफी लेलो, और सोचो मुस्कुरा के
बच्चो से आज क्या जूठ बोलोगे, ऐ अब्बाजान !
ये कैसा वक़्त है ,
न जाने कैसा मौसम है
खुद की नजरो में गिरना पड़ता है सुबह शाम !
Friday, May 7, 2010
तराजू
मुझे एक तराजू देना था , जिससे नापू सबका प्यार
कैसे कह सकू मैं सबको , की क्या है मेरे अरमान
क्यों न सिखाया हमे, दुनिया के ये रश्मो रिवाज
कुछ बोलने से पहले , तौलने होते है अपने अलफ़ाज़
इतने सारे चल कपट ने , बना छोड़ा है हमे नाकाम
दिल के किताब में , सूखे पड़े है कितनी क्यारियां
जाने अनजाने लोगो ने , दे दिया हमपे सारा इलज़ाम
जब कुछ न बचा , तो थमा दिया सबने हमे जाम
इन् उल्फतो के खेल में ,आज लिख बैठा ये अफसाना
रहे न किसी के , तनहा सा रह गया महफ़िल में दीवाना
अब तो दो एक तराजू , नापू जिसमे अपने कफ़न-इ-ज़स्बात
जाते जाते ही सही , कम से कम मिलेगी सुकून-ए-रिहायत
कैसे कह सकू मैं सबको , की क्या है मेरे अरमान
क्यों न सिखाया हमे, दुनिया के ये रश्मो रिवाज
कुछ बोलने से पहले , तौलने होते है अपने अलफ़ाज़
इतने सारे चल कपट ने , बना छोड़ा है हमे नाकाम
दिल के किताब में , सूखे पड़े है कितनी क्यारियां
जाने अनजाने लोगो ने , दे दिया हमपे सारा इलज़ाम
जब कुछ न बचा , तो थमा दिया सबने हमे जाम
इन् उल्फतो के खेल में ,आज लिख बैठा ये अफसाना
रहे न किसी के , तनहा सा रह गया महफ़िल में दीवाना
अब तो दो एक तराजू , नापू जिसमे अपने कफ़न-इ-ज़स्बात
जाते जाते ही सही , कम से कम मिलेगी सुकून-ए-रिहायत
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