Wednesday, September 8, 2010

'प्रभाकर'

लगा है 'प्रभाकर' आज पिघलने यों ही,

ये चाँद सा निर्मल लगा क्यों उबलने यों ही?

हिम-शित सा था जिसका मन ,

बरसाने लगा अंगारे आज क्यों यूँ ही?


उजाले सी जो रात निकली थी ,

क्यों सोने लगी आज अमावश सी ?

यकायक हुई कैसी ये बेबसी की

लाचारगी से ये पवन भी थमने लगी ?



सारे संबंधो में ऐसे क्यों कटुता आई,

जैसे किसी मातम में मूकता है चाई ?

मित्रता थी जिसके रोम रोम में ,

क्यों आज दोस्ती आहुति मांगे लगी ?



कैसी ये गणित है दुनियादारी की?

किसकी ये वणिक-वृत्ति रंग लायी ,

अन्यथा की आज मन मेरा

न जाने क्यों व्यथित है ?



क्यों मेरी उल्लास-प्रबलता है खोयी,

मेरी दशा पे सबकी विकलता आज रोई !

न मेरी रातें है आज , न ही मेरे दिन है ,

'प्रभाकर' क्या तेरा जीवन बहुत कठिन है ?

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