लगा है 'प्रभाकर' आज पिघलने यों ही,
ये चाँद सा निर्मल लगा क्यों उबलने यों ही?
हिम-शित सा था जिसका मन ,
बरसाने लगा अंगारे आज क्यों यूँ ही?
उजाले सी जो रात निकली थी ,
क्यों सोने लगी आज अमावश सी ?
यकायक हुई कैसी ये बेबसी की
लाचारगी से ये पवन भी थमने लगी ?
सारे संबंधो में ऐसे क्यों कटुता आई,
जैसे किसी मातम में मूकता है चाई ?
मित्रता थी जिसके रोम रोम में ,
क्यों आज दोस्ती आहुति मांगे लगी ?
कैसी ये गणित है दुनियादारी की?
किसकी ये वणिक-वृत्ति रंग लायी ,
अन्यथा की आज मन मेरा
न जाने क्यों व्यथित है ?
क्यों मेरी उल्लास-प्रबलता है खोयी,
मेरी दशा पे सबकी विकलता आज रोई !
न मेरी रातें है आज , न ही मेरे दिन है ,
'प्रभाकर' क्या तेरा जीवन बहुत कठिन है ?
You have opened so many secrets..Nice very ncie!:)
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