Wednesday, July 22, 2009

कुछ ऐसे अल्फाज़

उस हर पल का सोचू
जिसमे काटे इतने जनम
क्योंकि साथ तुम थी

चल पड़ता था घुमंतू
न जाने किस डोर चले
क्योंकि साथ तुम थी

लड़ पड़ता ज़माने से
उलझे वक़्त के तूफानों से
क्योंकि साथ तुम थी

मेरे आँखों के वो बूंद
छुपे थे तहखाने में
क्योंकि साथ तुम थी

मैंने धुन छेरा जब भी
एक बेजोड़ कहानी बनी
क्योंकि साथ तुम थी

रिश्तो के इस डोर में
मेरे अल्फाज़ सुहाने सजते
क्योंकि साथ तुम थी

आज अचानक खडा पाया
उस चौराहे के डंडी पे
हाथ बढाया छूने को तो
वो तुम नहीं, वोह तुम नहीं

नज़्म अधुरा रह गया मेरा
खोया है सरगम साज कही
क्योंकि आज तुम नहीं

कैद है इन् पलकों में
न जाने अद्बुने खवाब सारे
क्योंकि आज तुम नहीं

दे रहा हूँ मैं आवाज
सारे ज़माने से ले के आस
आ जा थाम ले फिर ये हाथ

एक अधूरा खवाब हमारा
नाम देना इस रिश्ते को
आके जोड़ आज कुछ ऐसे अल्फाज़

आके जोड़ आज कुछ ऐसे अल्फाज़ !!

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