Wednesday, September 8, 2010

'प्रभाकर'

लगा है 'प्रभाकर' आज पिघलने यों ही,

ये चाँद सा निर्मल लगा क्यों उबलने यों ही?

हिम-शित सा था जिसका मन ,

बरसाने लगा अंगारे आज क्यों यूँ ही?


उजाले सी जो रात निकली थी ,

क्यों सोने लगी आज अमावश सी ?

यकायक हुई कैसी ये बेबसी की

लाचारगी से ये पवन भी थमने लगी ?



सारे संबंधो में ऐसे क्यों कटुता आई,

जैसे किसी मातम में मूकता है चाई ?

मित्रता थी जिसके रोम रोम में ,

क्यों आज दोस्ती आहुति मांगे लगी ?



कैसी ये गणित है दुनियादारी की?

किसकी ये वणिक-वृत्ति रंग लायी ,

अन्यथा की आज मन मेरा

न जाने क्यों व्यथित है ?



क्यों मेरी उल्लास-प्रबलता है खोयी,

मेरी दशा पे सबकी विकलता आज रोई !

न मेरी रातें है आज , न ही मेरे दिन है ,

'प्रभाकर' क्या तेरा जीवन बहुत कठिन है ?

Monday, September 6, 2010

अस्तित्व !!

यूँ एकटक सा

खुले आसमान की पनाहों में

क्या देखता बत्तक सा ?



बेचैनी ये नहीं ,

किसी की भूख भी नहीं

कैसी ये प्यास है ,

मन को क्यों एक आस है ?



किसकी तलाश है?

शायद एक यार की?

दोमूही नहीं,

एक्मूही तलवार की !



जी हाँ,

एक स्वतंत्र विचार की

नदी पार लगाये वो पतवार की !



कहाँ है वो ?

मुझ में तो नहीं ?

टटोलो ,

झकझोरो खुद को !



क्या मैं नहीं हूँ ,

तेरा सबसे करीबी यार ?

मुँह खोले अब क्या है बैठा ?

अब पहचाना अपने अस्तित्व को ?

Thursday, September 2, 2010

ये कैसा वक़्त है !

ये कैसा वक़्त है ,
न जाने कैसा मौसम है
निकला सीना फूला के , सोच हमारे जेब में बहुत दम है !

लाना था घर के सामान , साथ बच्चों के कुछ अरमान
महीने भर की पगार लेके , चल पड़ा मैं मुंशी की दुकान !
किलो भर जो लिखा था, पौउए में बोल पड़ा मेरा जुबान
क्या करे 'अबे अपनी औकात देख' , बोल पड़ा सामान !

कहके निकला था आज घर से,
मुन्ना की पैंट , मुन्नी की फ्रॉक ,लेंगे आज अब्बाजान
कीमत सुन ऐसा महसूस हुआ
जैसे बित्ते में अब बिकता है , रेशों का भी सामान !

ये कैसा वक़्त है ,
देख रहा है न तू भगवान
मुश्किल हो गया है अब तो, ढकना जिस्म की भी आन !

औधे मुह लौटा हूँ
आज देख सबका ईमान
समय है बेईमान , हो चूका है बेवकूफ इंसान !

जेब में हाथ डाला, सुन चिल्लाते चिल्लर का ये एलान
४ टॉफी लेलो, और सोचो मुस्कुरा के
बच्चो से आज क्या जूठ बोलोगे, ऐ अब्बाजान !

ये कैसा वक़्त है ,
न जाने कैसा मौसम है
खुद की नजरो में गिरना पड़ता है सुबह शाम !

Friday, May 7, 2010

तराजू

मुझे एक तराजू देना था , जिससे नापू सबका प्यार
कैसे कह सकू मैं सबको , की क्या है मेरे अरमान

क्यों न सिखाया हमे, दुनिया के ये रश्मो रिवाज
कुछ बोलने से पहले , तौलने होते है अपने अलफ़ाज़

इतने सारे चल कपट ने , बना छोड़ा है हमे नाकाम
दिल के किताब में , सूखे पड़े है कितनी क्यारियां

जाने अनजाने लोगो ने , दे दिया हमपे सारा इलज़ाम
जब कुछ न बचा , तो थमा दिया सबने हमे जाम

इन् उल्फतो के खेल में ,आज लिख बैठा ये अफसाना
रहे न किसी के , तनहा सा रह गया महफ़िल में दीवाना

अब तो दो एक तराजू , नापू जिसमे अपने कफ़न-इ-ज़स्बात
जाते जाते ही सही , कम से कम मिलेगी सुकून-ए-रिहायत